भोगोलिक स्थिति :

श्री रूपनारायणजी मंदिर गाँव-सेवंत्री, जिला-राजसमंद ,राजस्थान, भारत के महान तीर्थ स्थानो में से एक है.ये मंदिर बहुत ही अदभुत ,विशाल,अकाल्पनिक हैं,वास्तव में ये मंदिर एक नहीं बल्कि दो हैं अर्थात प्राचीन मंदिर के ऊपर दूसरा नवीन मंदिर का निर्माण किया गया है.यह तीर्थ स्थान चारो तरफ अरावली पर्वत की घनी पहाडियों ,घना वन,घाट ,सरोवर, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों से सुस्सजित है( इस क्षेत्र में पाये जाने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के फल पुरे भारतवर्ष कदाचित नहीं होंगे ) ,और वन के भिन्न-भिन्न पक्षी पक्षुयो से अलंकृत है,

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर / सेवंत्री गाँव के दर्शन के लिए कई मार्ग है :

१) उदयपुर.......>नाथद्वारा......> गोमती चोराया ( नेशनल हाईवे 8 national highway 8) गोमती चोराया से 3 मार्ग ..........पहला मार्ग वाया चारभुजा.....>सेवंत्री दूसरा मार्ग वाया साथिया (चारभुजा से पहले दाये तरफ) > .....कसार....>सेवंत्री तीसरा मार्ग अजमेर.....भीम/ब्यावर/........> कितेला (गोमती के एकदम पास) .......> उमरवास .....सेवंत्री २) फालना स्टेशन ......> सिरोही....> देसुरी नाल.....> झिलवाडा....> चारभुजा ....सेवंत्री फालना स्टेशन ......>सिरोही....> देसुरी नाल......> झिलवाडा .....>वाया आवली भागल....> सेवंत्री

             

मंदिर का इतिहास :

श्री रूपनारायणजी मंदिर सेवंत्री, राजसमंद ,राजस्थान, भारत के महान तीर्थ स्थानो में से एक है.इस मंदिर में भगवान श्री विष्णु गदा पदम् शंख चक्र धारण किये माता श्री देवी और माता भूदेवी के साथ विराजमान है ( श्रीदेवी लक्ष्मी जी और भूदेवी पृथ्वी माँ के नाम से संबोधित किये जाते है ), ये मंदिर बहुत ही अदभुत ,विशाल,अकाल्पनिक हैं,वास्तव में ये मंदिर एक नहीं बल्कि दो हैं अर्थात प्राचीन मंदिर को विधावंश किये बिना उसके ऊपर दूसरा नवीन मंदिर का निर्माण किया गया है.यह तीर्थ स्थान चारो तरफ अरावली पर्वत की घनी पहाडियों ,घना वन, गोमतीघाट ,सरोवर, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों से सुस्सजित है ( इस क्षेत्र में पाये जाने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के फल पुरे विश्व में एक ही क्षेत्र में कदाचित नहीं होंगे ) ,और वन के भिन्न-भिन्न पक्षी पक्षुयो से अलंकृत है, ये मानत्या है की इस तीर्थ स्थान पर जो विभिन्न प्रकार के फल , दुर्लभ आयुर्वेदिक वनस्पतिया पाई जाती है जो कदाचित हिमालया पर्वत के अतिरिक्त और कहीं नहीं पाए जाते है,इस कारण पांडवो ने भी इस तीर्थ को अस्थायी निवास के रूप में चुना और ये मानत्या है की इस मंदिर का निर्माण और पूजा कभी पांडवों ने भी की थी.

             

इस मंदिर का निर्माण पहाड़ी के शिखर पर किया गया है,मंदिर के नीचे बड़ी – बड़ी काली एवम हलके हरे रंग की पाषण शिलाये है ( पर अब इस मंदिर को सफ़ेद संगमरमर के पाषाणों में तब्दील किया है). मदिर के नीचे एक गुप्त गुफा / सुरंग है ( जो कई वर्षो पहले बंद कर दी जा चुकी है ) . मंदिर के अंदर भगवान श्री नारायण ,लक्ष्मी जी और भूदेवी की प्रतिमा विराजमान है मंदिर में इन तीनो मुर्तियों के साथ–साथ गणपतिजी ,नीलादेवी और बहुत से देवी - देवताओ की अदृश्य मुर्तिया जो वस्त्रो में छिपी है,और एक अमर ज्योत है जो शताब्दियो से जल रही है, इन मूर्तियों के ठीक समक्ष भगवान गरूडजी की मूर्ति स्थित है और उनके पीछे ब्रह्मा,विष्णु और महेश का प्राचीन मंदिर स्तिथ है जो उस काल में और कही नहीं थी. इस मंदिर को भगवान विष्णु के कई रूपों को ध्यान में रखकर बनाया गया है इसलिए इस मंदिर को रूपनारायण के नाम से जाना जाता है.

             

मदिर के तीन तोरण है और ये तीनो तोरण पूर्व ,पश्चिम और उत्तर दिशाओ में स्थित है. मंदिर के अन्दर कुंड,पुष्प वाटिका है ( जो अब मंदिर के बाहर स्थित है पहले वहाँ जाने के लिए गैरनृत्य चौक में एक खिड़की हुआ करती थी ) उस कुंड का तोरण दक्षिण दिशा में मंदिर के बाहर अखाड़े के पास अब भी है. भगवन श्री रूपनारायणजी को स्नान कराने हेतु जो जल लाया जाता है वो मंदिर के पास गोमती नदी से सलग्न एक छोटी पवित्र कुड़ी है और इस के पास शंकर भगवान का मंदिर है.( वर्तमान काल मे भगवान शंकर का मंदिर और पवित्र कुड़ी मंदिर से 3 की.मी. दूरि पर है) .गोमती नदी के ऊपर लक्ष्मण झुला है जिससे पूर्व से पश्चिम की तरफ आ जा सकते है और आजके समय जो भी भगवान श्री रूपनारायण जी और श्री चारभुजा जी के दर्शन के लिए आते है वो इस गोमती घाट पर अवश्य स्नान करते है. नगराज जी के वंश में देवाजी पंडा नामक एक श्रेष्ठ भक्त हुए थे और उनकी भक्ति के कारणवश भगवान श्री रूपनारायण जी ने उनको दर्शन दिए और उनके केश दर्शन की कथाये आज भी इस मंदिर के भक्तों के ह्रदय मे विराजमान है.

             

नागराज जी / देवाजी पंडा के युग में इस मंदिर में कई बदलाव बलुन्दा ठाकर द्वारा किये गए ,इस मंदिर को विध्वंश किये बिना इस के ऊपरही नए मंदिर का निर्माण किया गया जो खजुराओशैली से किया गया इसलिए इस मंदीर में पांडव युग और नगराजजी युग दोनो के दर्शन होते है. गर्भगृह और अंतराला आज भी पांडवो की याद दिलाते है, अंतराला से विमाला को बहुत ही अच्छे प्रकार से सजाया है,विमाला मे ही भंडारगृह स्तिथ है,विमाला के द्वार के उपर भीत पर मंडप की तरफ सूर्य भगवान के दर्शन कांच से सुसज्जित किये है ( अब तोड़कर नए वैशे ही बनाये है), मंडप में भगवान गरूडजी की मूर्ति स्तिथ है उसके पीछे बलुन्दा ठाकर की प्रतिभा है, और उसी में वीरघंटा , नंघाड़े आदि स्थित है ,मंडप के उपर गोपुरम के नीचे वाले भाग में बहुत ही आकर्षक मुर्तिया है और वहाँ से पांडव निर्मित मंदिर और सारा प्रदेश दिखे वैसे मनमोहक दृश्य है,मंडप में ही ऊपर जाने के लिए सिर्फ एक ही पाषाणशिला से बनाई गई सीडी है जो पुरे भारतवर्ष में कदाचित एक ही है.

             

इस मंदिर में एक और चौका देने वाली बात हे की इस मंदिर के सभी स्तंभ एक ही पाषाण के बने हुए है जबकि दुसरे मंदिरों में पाषाणों के टुकड़े-टुकड़े मिलाकर स्तंभ बनाये जाते है और उन्हे आज तक कोई नहीं गिन पाया है ( पहले कई बार नारियल ,आदमी इत्यादि हर स्तंभके नीचे रखकर गिनने की असफल कोशिश की गई है). गोपुरम का निर्माण बहुत ही आकर्षक है ,विमाना भी बहुत ही सुदर और बहुत लम्बा बनाया गया है, प्रनाला को देखकर कोई भी मंदिर के निर्माण के बारे में जल्द जान सकता है, भगवान के चरणों से निकला चरण अमृत ग्रहण करने के लिए बहुत ही सुंदर चरणामृत बनाई गई है जो कदाचित भारतवर्ष में कुछ ही पुराने मंदिरों में होगी,सप्तरथा को बहुत ही सुंदर रूप से निखारा है, चारो दिशाओ की प्रदक्षिणा को देखते ही मन भर जाये वैसे बनाई है, कलशा भी बहुत बड़ा और सुंदर बनाया है,अमालका भी मंदिर में शोभे वैसा ही सुंदर बनाया है जिसपर कोई भी खड़ा होकर धवाज्वंदन कर सकता है, अमालका के ठीक नीचे बहुत ही आकर्षक शिखरा चारो तरफ बनाये गए है,मंदिर के चारो तरफ जगती भी बहुत अच्छे ढंग से बहुत जगह लेकर से बनाई गई है,

             

मंदिर के चारो तरफ पच्चीस फूट की मोटी दिवार / कोट बनायीं गई है, श्री रूपनारायण जी मंदिर में मुगलों सहित कई लोगो ने कई बार आक्रमण किया था जो मंदिर को विध्वंश करने और लुटने के मनसूबे से आए थे परंतु भगवान की कई लीलाओं से भयभीत होकर प्रणाम करके कुछ ना कुछ भेंट देकर चले गए .( उन चमत्कारों में से भगवान की दाढ़ी के केश दर्शन जिसमे से खून और दूध गिरना,बड़ी मधुमखियो का एक रात में ही मदिर में हजारो की संख्या में बैठना ,बड़ी मधुमखियो द्वारा दुश्मनों पर हमला करना,गणपति मूर्ति का हाथी द्वारा खीचकर भी ना टूटना इत्यादी इन उपर्युक्त कारणों में असफल होने के बाद भगवान से क्षमा मांगकर भेट देकर जाना).

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर की सीमा के अंदर गोमती नदी /घाट के पास हिंगा –हिंगि नाम के दो पवित्र और अदृश्य पर्वत है कहा जाता है की जिसमे अदृश्य रूप में विराजमान कई तीर्थ स्थान मंदिर इत्यादि है, कई बार जब भारतवर्ष से ऋषि –मुनि यहाँ दर्शन के लिये यहाँ आते है तो वे पहले इसी पवित्र पहाड़ो के अंदर स्थित तीर्थ स्थानों,मंदिरों आदि के दर्शन करते –करते करीबन एक महीने के बाद श्री रूपनारायण जी के दर्शन पर पहुचते है क्योंकि यहाँ दर्शन करते करते उन्हें एक महिना लग जाता है. ( अचम्भे की बात यह है की श्री रूपनारायण जी का मंदिर गोमती नदी / गोमती घाट,हिंगा-हिंगि पर्वत से सिर्फ 3 किलो मीटर दूर ही स्थित है फिर भी एक महिना लगता है )

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर के इतिहास की शोध /ख़ोज/जानकारी स्व. श्री मोतीबा, स्व. श्री धुलाबा छड़ीदार , स्व. श्री भुराबा चोवटिया, स्व.श्री हरिलाल जी चोवटिया , स्व.श्री विरपाणबा, स्व. श्री चुनीलाल जी भंडारी, स्व.श्री सीताबा , स्व.श्री वनजी भंडारी के सहयोग से स्व. श्री राजमल जी लच्छीराम जी पंडीया ने की और उनके सहयोग से उनके पुत्र डॉ. श्री मन्नालाल जी पंडीया ने सेतु के रूप में श्री भुरजी चोवटिया, श्री रोशनलालजी ,श्री शिव शंकरजी ,श्री नारायण लालजी ,श्री भवरलालजी ,श्री सुभाष डाल जी , श्रीमती मोवनीबाई राजमलजी पंडीया और सबसे महत्वपूर्ण श्री भारत मन्नालाल पंडीया के सहयोग,सहकार्य ,साथ से सम्पूर्ण की.

             

नज़दीक मंदिर :

श्री रूपनारायण जी मंदिर के मार्ग में आते समय मध्य में करीबन 8-10 किलोमीटर के अंतराल पर चत्रभुज विष्णु भगवान जी का प्राचीन मंदिर आता है जो गढबोर ( ‘गढ’ किला और ‘ बोर’ राजपूत अर्थात राजपूतो का किला ) में स्तिथ है वहाँ पहले बद्री नामक गाँव था जो बद्री अर्थात विष्णु भगवान को संबोधित करता है जिसकी स्थापना १४४४ इसवी में हुआ था.

             

मंदिर के मेले /उत्सव :

श्री रूपनारायण जी मंदिर में बहुत ही विशाल मेला भाद्रपद ग्यारस ( एकादशी) जो अगस्त / सितंबर महीने में आता है ( श्री चारभुजा मंदिर में भी उसी दिन मेला होता है ) उस समय मंदिर में हजारो / लाखो लोग दर्शन के लिए पुरे भारतवर्ष से आते है ,इस दिन भगवान को रेवाड़ीयों में सजाकर मंदिर के प्रागण / जगती में रेवाड़ीयों से चारो तरफ भजन बोलते-बोलते प्रदक्षिणा कराते है और बाद में रेवाड़ीयों को आमल्डा सरोवर में झुलाने ले जाते है हजारो दार्शनिको के साथ .इस दिन भगवान के साथ साथ अन्नपूर्ण जी की रेवाड़ी भी आमल्डा सरोवर ले जाते है इनदोनो रेवडियो के साथ झूमते नाचते गाँववाले और दार्शनिक घोड़े ,ऊंट ,हाथी ,बैंडबाजा,मृदंग ,ढोल-ताशे,छड़ी,तलवारे,समर,बंदूके,छतरी इत्यादी और भजन बोलते-बोलते जाते और वापस आते है . ये भजन निश्चित की हुई जगहों पर रुक-रुककर गायेजाते है.आमल्डा सरोवर में पहुचते ही भगवान को वहाँ सरोवर के अंदर डुबाया / झुलाया जाता है वो भी सेकड़ो /हजारो पंडो, भक्तों के साथ व समक्ष , वो दृश्य बहुत ही आकर्षक मनमोहक ,विचित्र एवम सुंदर होता है

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर में बहुत ही विशाल दूसरा मेला होली दहन के दिसरे दिन से शुरू होकर पुरे पंद्रह दिवस चलता है जिसमे भगवान को दोपहर में प्रत्तेक दिवस डोलडा सोकला पर भजन गाते-गाते झुलाया जाता है और रात के समय गैरनृत्य होता है जिसमे अलग-अलग किस्म की गैर खेली जाती है. इस मंदिर में शताब्दियो से भगवान को हर दसम के दिन रात के समय मंदिर के प्रागण / जगती में रेवाड़ी से चारो तरफ भजनों सहित प्रदक्षिणा कराते है .मंदिर में अन्नकूट भी बहुत जोर शोर से मनाया जाता है.

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर में बहुत ही विशाल दूसरा मेला होली दहन के दिसरे दिन से शुरू होकर पुरे पंद्रह दिवस चलता है जिसमे भगवान को दोपहर में प्रत्तेक दिवस डोलडा सोकला पर झुलाया जाता है और रात के समय गैरनृत्य होता है जिसमे अलग-अलग किस्म की गैर खेली जाती है. इस मंदिर में शताब्दियो से भगवान को हर दसम के दिन रात के समय मंदिर के प्रागण / जगती में रेवाड़ी से चारो तरफ भजनों सहित प्रदक्षिणा कराते है .
श्री रूपनारायण जी मंदिर की पूजा-अर्चना नगराज जी के बाद शताब्दियो से देवाजी पंडा और उनके वंशज करते आ रहे है,जैसे –जैसे वंश बढ़ता गया वैसे वैसे वंशजो के घर भी बढ़ते गए और वे सेवंत्री के बाहर जो डोलिया श्री रूपनारायण जी मंदिर में भेट की गई थी उसमे अपना अपना निवास नगराज जी पंडा के वंशज बसाते गए.

             

श्री रूपनारायण जी मंदिर में हज़ारों / लाखों श्रधालुयो के दर्शन आने की वजह से मंदिर के सारे काम पंडो से हो पाना असंभव हो गये इसलिये मंदिर से संबधित सभी कामो को बाँट दिया गया. मंदिर में पूजा अर्चना, मंदिर की साफ़ सफ़ाई ,भगवान का भोग ,मंदिर से संबधित सभी पुष्प वाटिका ,खेत- खलियान,डोलिया ,वृक्ष इत्यादी की ज़िम्मेदारी नगराज जी के वंशज पन्डाजी देखने लगे और बाकी मंदिर के दुसरे काम जैसे भगवान की वेशभूषा ,पानी भरना ,रसोई के लिए लकड़ी ,वेदपाठ इत्यादी काम गाँव के दुसरे लोगो को सोंपा गया और इन सभी कामो के लिए मेवाड़ दरबार उनको हर महीने वेतन भी देते गए साथ ही साथ भगवान के प्रसाद के लिए भी मेवाड़ दरबार ने हर दिन निर्धारित मात्रा में घी ,शक्कर, केसर,चंदन आदि तय कर दी परन्तु १९४९ से देवस्थान के अस्तित्व में आने के बाद पंडो ने उपयुक्त चीजों के लिए एक निर्धारित रकम की मांग की जो अब भी देवस्थान,राजस्थान द्वारा दी जा रही है और ये सब अभी तक चल रहे है.